Friday 17 February 2012

हम

यूँही रास्तो पर भटकते भटकते 
मंजिल कब छूटी , पता नहीं...
अभी तो थक भी न पाए थे ,
दम कब टूटा पता नहीं...

यूँ तो हर शख्स हमशक्ल लगता है...
मेरा चेहरा किसी से हू ब हू मिलता है ...
अपनी आंखों में देखते देखते कब दर्पण टूटा पता नहीं ... 
अभी तो थक भी न पाए थे ,
दम कब टूटा पता नहीं...

खुदा मिला दे उस रहनुमा से ,
जो मेरे दिल का हाल, सम्हाल ले ,
सजदे में झुके झुके क्या अरसा हुआ पता नहीं...
अभी तो थक भी न पाए थे ,
दम कब टूटा पता नहीं...

मैं आवारा पंछी, ऊंचे गगन में दूर तलक...
ढूँढा हर जगह, देखा हर एक फलक,
मेरा खुदा क्यूँ इतना दूर था, पता नहीं 
अभी तो थक भी न पाए थे ,
दम कब टूटा पता नहीं...

कुछ लफ्ज छूट गए या जज्बात रूठ गए ...
कुछ गजल यूँही अधूरी रह गयी,
क्यूँ हुई बज्म में रुसवाई...पता नहीं..
अभी तो थक भी न पाए थे ,
दम कब टूटा पता नहीं...